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इंसानियत के रहनुमा हुसैन ने सिखाया उसूलों पर कायम रहना

रिपोर्ट

शशिकान्त जायसवाल

स्वतंत्र पत्रकार विजन

गाजीपुर सेवराई तहसील क्षेत्र के ग्राम पंचायत नौली में इस्लाम को मानने वाले विभिन्न समुदाय के लोग अलग-अलग तरीकों से इमाम हुसैन की शहादत को याद करते हैं, जो दूसरों की खिदमत व भलाई करते हुए बुराई के खिलाफ लड़ते हुए शहीद हो गए इस्लाम में रमजान की तरह मुहर्रम भी खुदा की इबादत के लिए बहुत खास माना जाता है। इस्लामी कैलेंडर यानि हिजरी संवत में मुहर्रम के महीने से ही साल की शुरुआत होती है। मुस्लिम समुदाय के लोग इस महीने हजरत मुहम्मद सल. के नवासे इमाम हुसैन और उनके साथियों की इस्लाम को जिंदा रखने के लिए कुरबानी को याद करते हैं।मुहर्रम नेकी और कुर्बानी का पैगाम देता है। इस्लाम को मानने वाले विभिन्न समुदाय के लोग अलग-अलग तरीकों से इमाम हुसैन की शहादत को याद करते हैं, जो दूसरों की खिदमत व भलाई करते हुए बुराई के खिलाफ लड़ते हुए शहीद हो गए। नौली गांव के मनिर अंसारी ने बताया कि मुहर्रम मुस्लिम कैलेंडर के अनुसार, पहला महीना है। 1430 साल पहले इसी महीने की दस तारीख को पैगम्बर हजरत मोहम्मद साहब के नवासे हजरत इमाम हुसैन को यजीद की फौज ने तीन दिन तक भूखा प्यासा रख शहीद कर दिया था। इसीलिए इस महीने की खास अहमियत है। हजरत इमाम हुसैन ने सच्चाई की खातिर अपनी और अपने बच्चों की कुर्बानी को अहमियत दी।
उन्होंने बताया कि 680 ईसवी में माविया के मरने के बाद उसका बेटा यजीद शाम के तख्त पर बादशाह बना, जो बहुत ही जालिम था। यजीद ने बादशाह बनते ही इमाम हुसैन के सामने अपनी फर्माबरदारी करने का सवाल रखा। मगर हजरत हुसैन ने साफ इंकार कर दिया। जिसके चलते हजरत इमाम हुसैन ने मदीना छोड़ दिया और हज करने के इरादे मक्का पहुंचे, मगर वहां भी हाजियों के रूप धारण करते हुए यजीद के सिपाही पहुंचे। जो कि काबे में ही हजरत इमाम हुसैन का कत्ल कर देना चाहते थे। लेकिन हजरत इमाम हुसैन ने काबे शरीफ की अहमियत का ख्याल करते हुए मक्का से हज के एक दिन पहले ही वहां से आगे के लिए ओर रवाना हो गए।
हजरत इमाम हुसैन का काफिला मुहर्रम की दो तारीख को करबला पहुंचा, जहां यजीद की फौज ने इमाम हुसैन को घेर लिया। हजरत इमाम हुसैन के साथ काफिले में औरतें और बच्चें भी थे। जिनमें छह महीने का बच्चा अली असगर और 10 साल के हबीब इब्रे मजाहिर भी थे, जो कुल 72 आदमी थे, जबकि यजीद की फौज में हजारों आदमी थे।
जब हजरत इमाम हुसैन करबला में जाकर रुके तो अपने खेमे नहरे फुरात के किनारे लगा लिए, मगर यजीदी फौज ने वहां से खेमे हटवा दिए। यजीदी फौज ने सातवीं मुहर्रम से हजरत हुसैन और उनके परिवार का पानी बंद कर दिया, लेकिन फिर भी हजरत इमाम हुसैन ने यजीद की फरमाबरदारी कुबूल नहीं की। मुहर्रम की दसवीं तारीख की सुबह से हजरत इमाम हुसैन के साथियों की शहादत होने लगी। दोपहर तक हजरत इमाम हुसैन के बेटे, भतीजे, भांजे व दोस्त शहीद हो चुके थे। सिर्फ छह महीने के अली असगर ही बचे थे। लेकिन यजीदी फौज ने उसका भी कत्ल कर दिया।

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