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आनंद का स्रोत केवल मन ही है – आचार्य विनोद

स्वतंत्र पत्रकार विजन
स्वयं शाही

गोरखपुर
ग्राम पंचायत कनईचा में श्रीमद्भागवत कथा का विशाल आयोजन चतुर्थ दिवस कथाव्यास आचार्य श्री विनोद जी महाराज ने कहा, जीवन में आनंद का स्रोत केवल और केवल आपका मन ही है। आनंद कहीं बाजार में बिकने वाली वस्तु नहीं जिसे आप खरीद कर ला सको। यदि मन संतुष्ट है तो अभावों में भी आपको प्रसन्नता प्रदान कर देगा और यदि मन असंतुष्ट है तो संपूर्ण ऐश्वर्यों के बीच में भी आपको दुःखी कर देगा। आनंद तो दूध में घी की तरह आपके भीतर ही समाहित है, जब भी निकलेगा कहीं बाहर से नहीं अपितु स्वयं के भीतर से ही निकलेगा।

मृग की सुगंधी की तरह यदि आप भी आनंद को बाहर ही खोजते रहोगे तो हाथ सदा खाली ही रहेगा, वो बाहर नहीं अपितु भीतर ही है। आनंद किसी परिस्थिति विशेष का नाम नहीं अपितु प्रत्येक स्थिति में मन को प्रसन्न रखना आ जाये इस कला का नाम है। मन से ही मोक्ष है, मन से ही बंधन है, मन से ही अभाव है और मन से ही आनंद है। बस मन को साधने की कला आपको आ जाये क्योंकि जिसने मन को साधा, वही तो साधु भी है।
अनुकूलता और प्रतिकूलता एकमात्र साधन सामग्री, प्रतिकूलता को कोई बुलाता नहीं, उसे कोई चाहता नहीं; परंतु वह आ ही जाती है! ऐसा तो आप नहीं कह सकते कि जीवन में प्रतिकूलता नहीं आएगी! न चाहने पर भी वह आती है और अनुकूलता चाहने पर भी चली जाती है! तो जो अनुकूलता चाहने पर भी चली जाती है, उस अनुकूलता से नित्य संबंध की आशा करना, यह आशा करना कि वह सदैव बनी रहे क्या अपने आपको धोखा देना नहीं है? और जो प्रतिकूलता हमारे न चाहने पर भी आती है, उससे भयभीत होना क्या अपने ज्ञान का विरोध नहीं है? मानना पड़ेगा कि है! तो करें क्या? अनुकूलता बड़ी प्यारी लगती है, इसलिए उसे बनाए रखने की रूचि है! प्रतिकूलता प्रिय नहीं है, इसलिए उसके न आने की बात मन में रहती है! ऐसा इसलिए है कि हम अनुकूलता और प्रतिकूलता को जीवन मान लेते हैं! वास्तव में न तो अनुकूलता ही जीवन है और न प्रतिकूलता ही! तो फिर वह है क्या? वे साधन-सामग्री हैं! जब- जब जीवन में अनुकूलता आवे, हमें उसका सदुपयोग करना चाहिए और जब-जब जीवन में प्रतिकूलता आए, तब-तब उसका भी सदुपयोग करना चाहिए! अनुकूलता का सदुपयोग है उदारता और प्रतिकूलता का सदुपयोग है त्याग, विरक्ति, सहनशीलता, शांति और धीरज! जो प्रतिकूलता हमें धीरज देने के लिए आती है, शांति देने के लिए आती है, त्याग सिखाने के लिए आती है, विरक्त बनाने के लिए आती है- उस प्रतिकूलता से भयभीत होकर यदि हम घबराने लगें, तो हमारी प्राप्त सामर्थ्य का ह्रास होने लगता है और नवीन सामर्थ्य का उदय नहीं होता! धीरज से, शांति से, सहनशीलता से, क्षमाशीलता से और विरक्ति से प्राप्त सामर्थ्य का सदुपयोग होने लगता है और जो सामर्थ्य अप्राप्त है, वह प्राप्त हो जाती है।

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