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‘लो वसंत का मौसम आया ……।’

माघ माह की शुक्ल पंचमी से वसन्त ऋतु का आगमन माना गया है। पौराणिक वर्णन में कहा गया है कि वसन्त पंचमी के दिन विद्या तथा ज्ञान की देवी मां सरस्वती का प्राकट्य हुआ। इसलिए इसे वसंत पंचमी, श्री पंचमी, वागीश्वरी जयंती, मधुमास भी कहते हैं । इस पर्व को ज्ञान के महापर्व के रूप में मनाया जाता है। और वाणी की देवी सरस्वती का पूजन भी किया जाता है। ऋग्वेद के सूक्त में एक मंत्र में सरस्वती की प्रशंसा है –
‘प्राणों देवी सरस्वती वार्जेभिर्वजिनीवती धीनामणित्र्यवतु’
‘ऋग्वेद’ – १०/१२५
श्रीकृष्ण ने ‘गीता’ में वसंत को अपनी विभूति कहा है – ‘ऋतुनां कुसुमार’ अर्थात् वसन्त का सेवन करने वाला ब्रह्मवर्चस्व को प्राप्त करता है , इसलिए सरस्वती की कृपा पाने के लिए उपनयन संस्कार अथवा विद्यारम्भ संस्कार शास्त्रानुसार इसी दिन कराया जाने का विधान है। बिना उपनयन के विद्या अध्ययन लाभकारी सिद्ध नहीं होता है। वेद में भी प्राप्त होता है – ‘वसन्ते ब्राह्मणम् उपनीय इत्यस्य।’
वसन्त राग की ऋतु है, इस ऋतु के आगमन पर पुरी सृष्टि मानों सोलह कलाओं से पूर्ण हो जाती है ! जैसे मनुष्य की कौमार अवस्था को वसंत कहा जाता है, वैसे ही वसंत ऋतु को प्रकृति की कौमार अवस्था मानी जाती है। ऐसा प्रतीत होता है, जैसे प्रकृति ने नववधू की तरह श्रृंगार कर सरसों के पीले पुष्पों रूपी चादर ओढ़ ली हो!
वसंत पंचमी के ही दिन ज्ञान की नगरी काशी, ‘सर्वविधा की राजधानी’ काशी में राष्ट्रीय शिक्षा के लिए, देश कल्याण हेतु अपना अमूल्य योगदान देने वाले पं० मदन मोहन मालवीय जी ने 1300 एकड़ में विस्तृत ‘ एशिया का सबसे बड़ा आवासीय काशी हिंदू विश्वविद्यालय’ की सन् 1916 में स्थापना दिवस की स्मृति रूप में विश्वविद्यालय की नींव रखी गई। इसलिए वसंत पंचमी काशी हिंदू विश्वविद्यालय के लिए गौरवान्वित करने वाला अविस्मरणीय दिवस है।
हमारे भारतवर्ष में तथा नेपाल सहित मौसम को ऋतुओं के अनुसार छह ऋतुओं में बांटा गया है। इन्हीं ऋतुओं पर आधारित काव्य जगत के शिरोमणि महाकवि कालिदास ने तो एक ऋतुसंहार नामक काव्य की रचना कर दी। ऋतुसंहार महाकवि की प्रथम रचना मानी जाती है, जिसमें भारतवर्ष में प्रतिवर्ष में मनाई जाने वाली क्रमश:षड् ऋतुओं का वर्णन (1) गीष्म (2)वर्षा ( 3)शरद् (4) हेमन्त (5) शिशिर (6) वसन्त हैं ।
इन छः ऋतुओं वाला षट् सर्गोंं में विभक्त सुप्रसिद्ध ऋतुसंहार काव्य जिसमें षष्ठम सर्ग में वासन्तिक सौन्दर्य का मनोहारी वर्णन किया है –
द्रुमाः: सपुष्पाः सलिलं सपद्मं स्त्रियः सकायाः पवनः सुगन्धिः।
सुखाः प्रदोषा दिवसाश्चा रम्याः सर्वं प्रिये! चारुतरं वसन्ते।।’
‘ऋतुसंहार’ – ६/२
महाकवि कालिदास की काव्य उपमा से संसार में शायद ही कोई अछूता रहा हो! यहां कवि ने एक पद्य के माध्यम से ऋतुओं के राजा वसन्त को ‘श्रृङ्गार दीक्षा गुरू’ की उपमा दी है। प्रस्तुत श्लोक का भाव है, कि वृक्षों में नव पुष्प आ गाए हैं, जलाशयों में कमल खिल उठे हैं, स्त्रियां सकाम हो उठीं हैं, वायु सुगन्धित वह रहा है, रातें सुखद हो गईं हैं, और दिन मनोरम लगने लगा है, ओ प्रिय! वसन्त में सब कुछ पहले से और सुखद हो उठा है। संस्कृत में वसन्त पुल्लिंग में और हिन्दी में स्त्रीलिंग शब्द माना गया है।
महाकवि कालिदास ने अपनी कृतियों में प्रायः वसन्त का वर्णन अवश्य ही किया है। ‘कुमारसम्भवम्’ में तो पार्वती और शिव को भी वसन्त प्रिय बना दिया है।
पुराणों में भी वसन्त के रमणीय दृश्य मिलते हैं। महाकवि माघ ने वसन्त के प्रत्यक्ष दर्शनकारी दृश्य का ‘शिशुपालवधम्’ में वर्णन किया है –
नव पलाश पलाश वनं पुरः स्फुट पराग परागत पंकजम्‌,
मृदु लतांत लतांत मलोकयत्‌ स सुरभिं-सुरभिं सुमनो भरैः।
अर्थात् नवीन पल्लवों से पल्लवित् पलाश के वन, पराग रस से युक्त विकसित कमल और ये पुष्पों से युक्त कुंज समूह सुगन्धित मनोहारी वसन्त। कितना सुमनोहर है।
बुद्धचारितम् में वसन्त का वर्णन किया है, ‘भारवि’ ने ‘किरातार्जुनीयम्’ में, नैषधीयचरितम् में, रत्नाकर के हरिविजयम् में, श्रीकण्ठचरितम् में, विक्रमांकदेवचरितम् , कादम्बरी, रत्नावली, श्रृंगारशतकम्, गीतगोविन्दम्, मालतीमाधवम् आदि में वसन्त का महत्त्वपूर्ण वर्णन चित्रित किए हैं। कालिदास ने तो अपनी प्रत्येक रचनाओं को बिना वसंतोत्सव के पूर्ण ही नहीं किया है। ‘मेघदूतम्’ में ‘यक्षिणी’ के विरह आघात से निकलने वाले ‘अशोक’ तथा ‘मुख मदिरा’ से खिलने वाले ‘वकुल’ के माध्यम से वसन्त का वर्णन किया है।
वसन्त को ‘मधुमास’ तथा ‘मदनोत्सव’ भी कहते हैं, इसी दिन कामदेव की भी पूजा की जाती है। ‘रत्नावली’ आदि में मदानोत्सव का भी वर्णन मिलता है।

लेखक
आचार्या रुक्मणी पाठक
शोध छात्रा साहित्य विभाग काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी

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